गुरु शिष्य परंपरा का उत्सव है गुरू पुर्णिमा
गुरु पूर्णिमा गुरु व शिष्य की परंपरा के लिए विशेष उत्सव होता है। गुरु अपने ज्ञान से शिष्य को सही मार्ग पर ले जाते हैं। इसलिए गुरुओं के सम्मान में हर वर्ष यह पर्व मनाया जाता है। गुरु पूर्णिमा के दिन गुरु के अलावा भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की भी पूजा की जाती है। आषाढ़ मास की पूर्णिमा के दिन महाभारत के रचयिता महर्षि वेद व्यास का जन्म हुआ था। उनकी जन्मतिथि के उपलक्ष्य में पूजा की जाती है।
गुरु पूर्णिमा के दिन भगवान शिव ने अपने पहले सात शिष्यों सप्तऋषियों को सबसे पहले योग का ज्ञान प्रदान किया था। इस प्रकार आदियोगी शिव इस दिन आदि गुरु यानी पहले गुरु बने। सप्तऋषि इस ज्ञान को लेकर पूरी दुनिया में गए। आज भी धरती की हर आध्यात्मिक प्रक्रिया के मूल में आदियोगी द्वारा दिया गया ज्ञान ही है। गुरु साधक के अज्ञान को मिटाता है। ताकि वह अपने भीतर ही सृष्टि के स्रोत का अनुभव कर सके। पारंपरिक रूप से गुरु पूर्णिमा का दिन वह समय है जब साधक गुरु को अपना आभार अर्पित करते हैं और उनका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। योग साधना और ध्यान का अभ्यास करने के लिए गुरु पूर्णिमा को विशेष लाभ देने वाला दिन माना जाता है।
गुरु शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा से हुई है और इसका गहन आध्यात्मिक अर्थ है। इसके दो अक्षरों गुरू में गु शब्द का अर्थ है अज्ञान। रु शब्द का अर्थ है आध्यात्मिक ज्ञान का तेज जो आध्यात्मिक अज्ञान का नाश करता है। संक्षेप में गुरु वे हैं जो मानव जाति के आध्यात्मिक अज्ञान रूपी अंधकार को मिटाते हैं और उसे आध्यात्मिक अनुभूतियां और आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करते हैं ।
गुरु पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरम्भ में आती है। इस दिन से चार महीने तक साधु-सन्त एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से भी सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तृप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है। वैसे ही गुरु-चरणों में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शान्ति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है।
यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है। भक्तिकाल के संत घीसादास का भी जन्म इसी दिन हुआ था वे कबीरदास के शिष्य थे।
गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। सिख धर्म में भी गुरु को भगवान माना जाता है। इस कारण गुरु पूर्णिमा सिख धर्म का भी अहम त्यौहार है। सिख धर्म केवल एक ईश्वर और अपने दस गुरुओं की वाणी को ही जीवन का वास्तविक सत्य मानता है।
आषाढ़ की पूर्णिमा को चुनने के पीछे गहरा अर्थ है कि गुरु तो पूर्णिमा के चंद्रमा की तरह हैं। जो पूर्ण प्रकाशमान हैं और शिष्य आषाढ़ के बादलों की तरह। आषाढ़ में चंद्रमा बादलों से घिरा रहता है जैसे बादल रूपी शिष्यों से गुरु घिरे हों। गुरू अंधेरे में भी चांद की तरह चमक सके। उस अंधेरे से घिरे वातावरण में भी प्रकाश जगा सके तो ही गुरु पद की श्रेष्ठता है। इसलिए आषाढ़ की पूर्णिमा का महत्व है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रति वर्ष गुरु पूर्णिमा उत्सव अपनी सभी शाखाओं पर मनाता है। संघ के छह उत्सवों में से एक गुरु पूर्णिमा भी है। गुरु पूर्णिमा के दिन देश में संघ की सभी शाखाओं पर स्वयंसेवक इस उत्सव को मनाएंगे। संघ के स्वयंसेवक किसी व्यक्ति को नहीं बल्कि भगवा ध्वज को अपना गुरु मानते हैं। उस दिन भगवा ध्वज की पूजा करने के साथ-साथ गुरु के प्रति जो भी बनता है समर्पण भी करते हैं। संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने स्वयंसेवकों के लिए गुरु पूजा प्रारंभ की। यह गुरु कोई व्यक्ति नहीं बल्कि भगवा ध्वज है। संघ तत्व पूजा करता है व्यक्ति पूजा नहीं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने गुरु के स्थान पर भगवाध्वज को स्थापित किया है। भगवाध्वज त्याग, समर्पण का प्रतीक है। स्वयं जलते हुए सारे विश्व को प्रकाश देने वाले सूर्य के रंग का प्रतीक है। संपूर्ण जीवों के शाश्वत सुख के लिए समर्पण करने वाले साधु, संत भगवा वस्त्र ही पहनते हैं। इसलिए भगवा, केसरिया त्याग का प्रतीक है।
महान संत कबीरदास जी ने गुरु के महत्व को इस तरह बताया है-
गुरू गोविन्द दोऊ खड़े काके लागु पांय,
बलिहारी गुरू आपने गोविन्द दियो बताय।
अर्थात यदि भगवान और गुरु दोनों सामने खड़े हो तो गुरु के चरण पहले छूना चाहिये क्योंकि उसने ही ईश्वर का बोध करवाया है। गुरु का स्थान भगवान से भी ऊंचा है। प्रसिद्ध सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य ने चाणक्य को अपना गुरु बनाकर ही राज सिंहासन पाया था। इतिहास में हर महान राजा का कोई न कोई गुरु जरुर था। गुरु और शिष्य का रिश्ता बहुत मधुर होता है। प्राचीन भारत में आज की तरह स्कूल, कॉलेज नहीं होते थे। उस समय गुरुकुल प्रणाली द्वारा शिक्षा दी जाती थी। समाज के सभी वर्गों के बालक गुरुकुल जाकर शिक्षा प्राप्त करते थे। वो गुरुकुल (आश्रम) में ही रहकर शिक्षा प्राप्त करते थे।
नेपाल में इसे गुहा पूर्णिमा के रूप में मनाते है। छात्र अपने गुरु को स्वादिस्ट व्यंजन, फूल मालाएं, विशेष रूप से बनाई गयी टोपी पहनाकर गुरु का स्वागत करते है। स्कूल में गुरु की मेहनत को प्रदर्शित करने के लिए मेलो का आयोजन किया जाता है। इस दिवस को मनाकर गुरु-शिष्य का रिश्ता और भी मजबूत हो जाता है।
गुरु का आशीर्वाद सबके लिए कल्याणकारी व ज्ञानवर्धक होता है। इसलिए इस दिन गुरु पूजन के उपरांत गुरु का आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए। आज के भागदौड़ भरे भौतिकतावादी समाज में हमे गुरु की बहुत अधिक जरूरत होती है। गुरु का महत्व सिर्फ शिक्षा के क्षेत्र में ही नही बल्कि व्यापक अर्थ में देखने को मिलता है। अब तो आध्यात्मिक शांति के लिए अनेक लोग किसी न किसी गुरु की शरण में चले जाते है। इसलिए हर भटके हुए व्यक्ति को सही मार्ग दिखाने का काम गुरु की कर सकता है। इसलिए गुरु का अर्थ बहुत व्यापक और बड़ा है। हम सभी को अपने गुरु जनों को कोटि-कोटि प्रणाम करना चाहिये। उन्होंने जो ज्ञान हमे दिया उनका मूल्य कभी भी नही चुकाया जा सकता है।
गुरु पूर्णिमा के दिन गुरु यंत्र की स्थापना करने से जीवनभर सौभाग्य में कमी नहीं होती है। हर कार्य पूरे होते हैं। कार्यक्षेत्र में सफलता मिलती है। गुरु पूर्णिमा उन सभी आध्यात्मिक और अकादमिक गुरुजनों को समर्पित परम्परा है। जिन्होंने कर्म योग आधारित व्यक्तित्व विकास को प्रबुद्ध करने, बहुत कम अथवा बिना किसी मौद्रिक खर्चे के अपनी बुद्धिमता को साझा करने के लिए तैयार हों। गुरू पूर्णिमा को भारत, नेपाल और भूटान में हिन्दू, जैन और बोद्ध धर्म के अनुयायी उत्सव के रूप में मनाते हैं। महात्मा बुद्ध ने इस दिन उत्तर प्रदेश के सारनाथ में अपना पहला उपदेश दिया था।